Monday 11 December 2017

किस्मत

कितना कुछ खोया है फिर भी,
कितना कुछ है खोने को,
कोई सबब मील ही जाता है,
अपनी किस्मत पर रोने को।

ये गुमनामी और तनहाई,
हमने चुनी है अपने लिए,
तेरे जैसे जाने माने,
हो सकते थे हम भी होने को।
कोई सबब मील ही जाता है,
अपनी किस्मत पर रोने को।

बच्चे का मन था खेला,
तोड़ दिया फिर छोड़ दिया,
अब बच्चे की आदत पड़ गई,
उस नादान खिलौने को।
कोई सबब मील ही जाता है,
अपनी किस्मत पर रोने को।

मखमल का बिस्तर औ चादर,
रेशम की तकिया सिरहाने,
सब चीज़े आराम की है,
बस नींद नहीं है सोने को।
कोई सबब मील ही जाता है,
अपनी किस्मत पर रोने को।

कल रात

कल रात कुछ लम्हो की कहा सुनी हुई है शायद,
सहर के लम्हो के माथे पर हैरानी के घाव लगे थे,
हर लम्हे की चाल भी धीमी और थकी सी लगती थी,
ज़ख्मो से बेज़ार, शरमिंदा, आँखों में आंसू लेकर,
जाने क्या उम्मीद लिए सब मेरी ज़ानिब देखते थे,
कौन ग़लत था, कौन सही था,
क्या सबब था, क्या नहीं था,
खुदा ही जाने या फिर उन हालात को मालूम,
जो एकलौता गवाह है कल रात के सारे किस्सो का,
गुज़र चुके वो सब लम्हे, जख्मी थे पर ज़िंदा थे,
इतने साफ़ नज़र आते थे, जैसे अभी इस दौर के हो,
कुछ देर रुके, फिर लिपट कर मुझसे,
फूट फूट के रोने लगे, जैसे लड़कर आपस में,
बच्चे रोने लगते है,
वक़्त ने अपने हाथों से फिर सबके आंसू साफ़ किये,
सभी गलतियां, सारे गुनाह कुछ न कहे ही माफ़ किये,
अक्सर यही होता है कि,
लम्हो के छोटे झग़डे, नोक झोंक और बहासबाजिया,
वक़्त, बिना कुछ कहे सुने ही, यु सुलझाता आया है,
लम्हे आखिर छोटे है, मासूम बहोत है, लड़ते है,
वक़्त बड़ा है, उम्रदराज़ है हर मसले का हल ही है।

कल रात कुछ लम्हो की कहा सुनी हुई है शायद,
सहर के लम्हो के माथे पर हैरानी के घाव लगे थे।

छोड़के आया हु

वो सूरज और चाँद, पीपल की छाँव छोड़के आया हु।
शहरी मोहल्लों से भी बड़ा घर गाँव छोड़के आया हु।

क्या खुदगर्ज़ी, मनमर्ज़ी, खुदके पैरो पे खड़ा होने,
बूढ़े बाबा के थके कांपते पाँव छोड़के आया हु।
शहरी मोहल्लों से भी बड़ा घर गाँव छोड़के आया हु।

जिस मिट्टी का जाने में मुझपे कितना क़र्ज़ बकाया है,
उस मिट्टी की सीने पे कितने घाव छोड़के आया हु।
शहरी मोहल्लों से भी बड़ा घर गाँव छोड़के आया हु।

शहरी तरीके, ताहज़ीबे, आधुनिकता के एवज़ में,
सोच, समझ, संस्कार सहित बर्ताव छोड़के आया हु।
शहरी मोहल्लों से भी बड़ा घर गाँव छोड़के आया हु।

हो सकता है बहते बहते वो भी समंदर तक आये,
गांव लगे उस नहर में मैं एक नांव छोड़के आया हु।
शहरी मोहल्लों से भी बड़ा घर गाँव छोड़के आया हु।

अब बस भी कर

ज़िन्दगी कितना सताएगी, अब बस भी कर।
देख तू बदनाम हो जायेगी, अब बस भी कर।

कुछ रोज़ की मेहमान है तू मकान ए जिस्म में,
एक दिन निकाले जायेगी, अब बस भी कर।
देख तू बदनाम हो जायेगी, अब बस भी कर।

झूठी बाते, जालसाज़ी, चालाखी और फ़रेब,
क्या क्या भला करवायेगी, अब बस भी कर।
देख तू बदनाम हो जायेगी, अब बस भी कर।

कल बड़ी काम आएंगी आज की सब नेकियां,
कब तक मुझे बहलायेगी, अब बस भी कर।
देख तू बदनाम हो जायेगी, अब बस भी कर।

तू मौत की है दिलरुबा, मैं तेरा तलबगार हूँ,
तू मुझसे वफ़ा निभाएगी? अब बस भी कर।
देख तू बदनाम हो जायेगी अब बस भी कर।

किरदार

किसी की जरूरतों में, किसी के प्यार में रहता हूं।
बहोत कम मैं अपने असली किरदार में रहता हूं।

वो कोशिशें रोज़ करता है मेरे चेहरे को पढ़ने की,
मैं अक्सर मेरे लिखे हुए अशआर में रहता हूं।
बहोत कम मैं अपने असली किरदार में रहता हूं।

जब मैं नेक था ख़ालिस था, नज़रो में रहता था,
अब बदनाम हो गया हूं, तो अखबार में रहता हूं।
बहोत कम मैं अपने असली किरदार में रहता हूं।

सवंर जाता है रुख उसका मेरी नज़र ए इनायत से,
वो कहती है कि मैं उसके हर श्रृंगार में रहता हूं।
बहोत कम मैं अपने असली किरदार में रहता हूं।

रातभर पीता हु निगाहो से कयी ख्वाब उसके,
और दिनभर फिर उसीके ख़ुमार में रहता हूं।
बहोत कम मैं अपने असली किरदार में रहता हूं।

Tuesday 14 November 2017

हाय मर जाने के बाद।

बनके आंसू ही बहूँगा हाय मर जाने के बाद।
क्या, कहाँ, कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।

जीते जी ले ले मेरा सच्चा इक़बाल ए बयां,
या ख़ुदा किससे कहूंगा हाय मर जाने के बाद।
क्या कहाँ कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।

तब मुझे होने पे ग़म था, अब मुझे जाने का ग़म,
फिरसे गम ही ग़म सहूंगा हाय मर जाने के बाद।
क्या कहाँ कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।

दिल में चाहे ना सही, तेरी आँखों में तो हु,
बनके आंसू तो बहूँगा, हाय मर जाने के बाद।
क्या कहाँ कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।

ये भी वजह है प्यार की मुझमे मेरी औलाद में,
उसकी रगों में फिर बहूँगा हाय मर जाने के बाद।
क्या कहाँ कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।।

Tuesday 19 September 2017

चुप रहना है मुझको।

कितना कुछ कहना है मुझको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

मेरे हिस्से जो दर्द लिखा है,
उतना तो सहना है मुझको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

मैं मुझसे ही ढका हुआ हूं,
मैंने खुद पहना है खुदको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

आज इमारत बुलंद हु पर,
एक दिन तो ढहना है मुझको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

कोई समंदर तो थाम लेगा,
नदी हु फिर बहना है मुझको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

Wednesday 21 June 2017

ग़म क्यों है।

ज़िन्दगी इतनी संगदिल, बेरहम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

आँखों के हिस्से आंसू है जरुरत से ज्यादा,
लबो के नाम तबस्सुम इतनी कम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

तू मुझे भूलने का दावा करता है तो फिर,
तेरी आँखों का किनारा अभी तक नम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

जो तेरे खयाल पे भी हक़ नहीं है अब मेरा,
फिर ये सुखन ये पुरज़े ये क़लम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

चाँद रोया है जमीं से लिपट के रात शायद,
हर एक शाख़ के फूलों पे ये शबनम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

ग़ज़ल ढूंढता हु।

मैं इस तरह परेशानियों का हल ढूंढता हु।
ग़मो के मलबे में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

मेरा माज़ी ही रहेगा मुस्तक़बील मेरा,
मैं हर आज में बीता हुआ कल ढूंढता हु।
ग़मो के ढेर में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

सहर आईने में, यु आँखों में अपनी,
मैं नींद में पड़े हुए खलल ढूंढता हु।
ग़मो के ढेर में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

जज्बा ए मोहब्बत कहु या की मिल्कियत,
मैं अपने बच्चे में खुदकी शकल ढूंढता हु।
ग़मो के ढेर में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

तू मेरी आँखों में ढूंढता है सच्चाई की चमक,
मैं अक्सर तेरी आँखों में कँवल ढूंढता हु।
ग़मो के ढेर में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

Wednesday 14 June 2017

लगाव है।

कमरे की जो चीज़े है,जो रख रखाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

बिखरी है चार सु, बेतरतीब सी पड़ी है,
मुझसे जुडी हर चीज़ में मेरा स्वभाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

मैं बोलता वही हु, जो भी वो चाहता है,
है अहतराम उसका या फिर दबाव है?
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

किस्से कहानियां है दोस्ती में जान देना,
अब देने को दोस्ती में केवल सुझाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

ये रुतबा, ये पैसा, ये शोहरत, ये ताक़त,
मंज़िल ए मौत तक के ये सब पड़ाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

ये तंज़ मोहब्बत का कैसे किसे बताये,
आँखों में है समंदर, रुख पे अलाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

रिश्तो की सरहदों का नियम कोई टूटा है,
दोनों ही सिम्त देखो कितना तनाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

Monday 3 April 2017

ऊंचाई नापते है।


बड़ा मुश्किल है ये कहना कैसे ऊंचाई नापते है।
जिस्म का कद देखते है या परछाई नापते है।

बेहतर है, पूरा झूट ही अब कह दिया जाए,
फिर सब अपने हिसाब से सच्चाई नापते है।
जिस्म का कद देखते है या परछाई नापते है।

सर ए बाज़ार सस्ता न लगु अपने बच्चो को,
पहले चल ज़रा बाज़ार की महंगाई नापते है।
जिस्म का कद देखते है या परछाई नापते है।

पहाड़ो, कैसे मैं बौना कहु खामोश दरिया को,
वो दरिया है, दरियाओं की तो गहराई नापते है।
जिस्म का कद देखते है या परछाई नापते है।

Tuesday 28 March 2017

सड़क

शाम से सहर तक जो एक
लंबी सड़क जाती है,
कुछ दूरी पर रात के घने जंगलों से,
होकर गुज़रना पड़ता है,
सुनसान, खामोश, अँधेरा,
मिलो लंबा सफर,
पुरानी यादो के कई,
घने दरख्तों से होकर
जाती है ये सड़क,
न कोई पक्का रास्ता,
न कोई अंदाज़ा की किस और निकले,
तसव्वुर के सूखे पत्तों की,
सरसराहट गूंजती है चार सु,
कुछ नज़्में, किसी पंछी की तरह,
कानो के पास से यकायक
आवाज़ करते हुए निकल जाती है,
खयालो के कितने ही,
रेंगते जानवर है इस जंगल में,
इस जंगल में, जाने कबसे,
यक़ीनन कुछ ज़हरीले भी है,
हो सकता काट भी ले,
ख्वाबो के कुछ धीमे उजाले,
चाँद सितारों जैसे ही कुछ,
कही कही पे दीखते है,
धुन्दले है पर, साफ़ नहीं है।
आधे सफर में यु ही अचानक,
एक सौंधी सी खुशबु आती है,
तेरा तसव्वुर, हा तेरा तसव्वुर,
उसी पुराने पौधे पे फिर,
खीला है आधा, महक रहा है,
अब ये जंगल, सुनसान, खामोश, अँधेरा,
खुशनुमा लगता है,
अब सारे तसव्वुर खामोश पड़े है,
ज़हरीले सब खयाल आब ओ हयात है अब,
वो नज़्म जो तब गुज़री थी आवाज़ में लिपटी,
अब कांधे पे आ बैठी है,
कानो में घुलती जाती है,
सहर को जाऊ, या ना जाऊ,
मुकाम करू, यही रात बिताऊँ,
कश्मकश में अब फिरसे हु,
एक नज़्म ने फिरसे रोक लिया है,
उसी सड़क पे,

शाम से सहर तक जो एक
लंबी सड़क जाती है।

Friday 10 March 2017

वो जो एक बात

वो जो एक बात, आधी अधूरी बुनी हुयी,
तुम मेज़ पर छोड़कर चली गयी थी,
उसे से रोज़ाना एक धागा निकालता हु मै,
रोज़ाना एक नया मतलब बनाता हूँ,
जो धागा निकाल देता हूं बात से,
फिर पिरो नहीं पाता दोबारा उसमे,
कई सौ मतलब यु ही बिखरे पड़े है,
धागों की सूरत कमरे में,
वो बात उधड़ गयी है एक सीरे से,
मतलबो से रेशा रेशा हो गई है,
कई और महीन और पेचीदा धागे है उसमें,
कई हज़ार मतलब और भी निकलेंगे,
यु ही उधेड़ता रहूँगा मैं, रोज़ाना,
जाने किस धागे में वो मतलब मिल जाए,
पर फिर सोचता हूं, तुम्हारी बात थी,
और उसे मैं उधेडु, खुदगर्ज़ी होगी,
वैसे मैं भी जान ही गया हूं अब,
मतलब धागों में रखा ही कहा था कोई,
मतलब तो बुनने में था, जो तुम्ही जानती हो।
अब आ भी जाओ, बुन दो, वो बात पूरी करदो।

वो जो एक बात, आधी अधूरी बुनी हुयी,
तुम मेज़ पर छोड़कर चली गयी थी,

रंजीश

मेरी रंजीश किसीसे यु ज़ाती नहीं है।
बस ये दुनिया समझ में आती नहीं है।

तरन्नुम नहीं, है तसव्वुर की कायल,
गज़ले पढ़ती है, वो गुनगुनाती नहीं है।
बस ये दुनिया समझ में आती नहीं है।

तुम चाहो तो पुरज़े जलाकर के देखो,
कोई आग यादे जलाती नहीं है।
बस ये दुनिया समझ में आती नहीं है।

हम दरिया है, खामोश, गहरा सा कोई,
समंदर के तरहा जज़्बाती नहीं है।
बस ये दुनिया समझ में आती नहीं है।

कई साज़िशों के है किस्से इन्हीमे,
ये आँखे जो कुछ भी बताती नहीं है।
बस ये दुनिया समझ में आती नहीं है।

शहरी तरीके, सोच औ समझ भी,
अब देहातो में कोई देहाती नहीं है।
बस ये दुनिया समझ में आती नहीं है।

खर्च करनी पड़ेगी कई ख़ास चीज़े,
ज़िन्दगी मुफ्त में कुछ सिखाती नहीं है।
बस ये दुनिया समझ में आती नहीं है।

खुदा, जो अहम् है, तेरे हाथ में है,
नशे में भी साँसे लड़खड़ाती नहीं है।
बस ये दुनिया समझ में आती नहीं है।

उतरता चला गया

वो खुदकी नज़र में इतना उभरता चला गया।
सबके दिलों से फिर वो उतरता चला गया।

वो हौसला, वो ख्वाब, ये सब बचपने के बाद,
जो हालात ने कराया, करता चला गया।
सबके दिलों से फिर बस उतरता चला गया।

खाका ए ज़िन्दगी मेरी बनायीं वक़्त ने,
तजुर्बा एक एक रंग फिर भरता चला गया।
सबके दिलों से फिर बस उतरता चला गया।

जिस दिन से तूने बिछड़ के जीने की बात की,
उस दिन से रफ्ता रफ्ता मैं मरता चला गया।
सबके दिलों से फिर बस उतरता चला गया।

परवाज़ से मगरूर हो जब जमीं से टूटता,
परो को अपने खुद ही कतरता चला गया।
सबके दिलों से फिर बस उतरता चला गया।

Tuesday 28 February 2017

टकराव पर


ज़हन औ दिल टकराव पर।
नाख़ून लगेंगे घांव पर।

शाखों के हिस्से धुप लिखी,
जड़ो का हक़ है छाँव पर।
नाख़ून लगेंगे घांव पर।

हम हद ए इश्क़ के पार हुए,
वो अब भी है लगाव पर।
नाख़ून लगेंगे घांव पर।

जिंदा रहने की ख्वाहिश में,
यहां जान लगी है दांव पर।
नाख़ून लगेंगे घांव पर।

बीच सफर हिम्मत टूटी,
इल्ज़ाम लगा है पाँव पर।
नाख़ून लगेंगे घांव पर।

शहरों को बड़ा बनाने में,
बड़ा क़र्ज़ बढ़ा है गांव पर।
नाख़ून लगेंगे घांव पर।

Friday 24 February 2017

नज़र नहीं आते।

सभीको ये नायाब हुनर नहीं आते।
मैं रोता हु, पर आंसू नज़र नहीं आते।

हर मुसाफिर को ढूंढनी है छाव अपने लिए।
किसी के वास्ते चलके शज़र नहीं आते।
मैं रोता हु, पर आंसू नज़र नहीं आते।

रास्ते गांव से शहर के है एकतरफा,
ये वापिस गांव फिर लौटकर नहीं आते।
मैं रोता हु, पर आंसू नज़र नहीं आते।

नहीं ऐसा भी नहीं है की तुम्हे भूल गए,
हां अब याद भी इतने मगर नही आते।
मैं रोता हु, आंसू नज़र नहीं आते।

याद आने का भी सलिखा नहीं है तुमको,
इतनी शिद्दत से इस कदर नहीं आते।
मैं रोता हु, पर आंसू नज़र नहीं आते।

ये अशआर 'शफ़क़' के कोई गुलाम नहीं है,
क्या हुआ बुलाने पे गर नहीं आते।
मैं रोता हु, पर आंसू नज़र नहीं आते।

जागती है रात भी।

मेरी सब सुनती भी है,करती है अपनी बात भी।
मेरे साथ रोज़ सहर तक जागती है रात भी।

हालातो ने मुझे बनाया, मुझसे फिर हालात बने,
गुनाहगार दोनों ही है, मैं और ये हालात भी।
साथ मेरे हां सहर तक जागती है रात भी।

जाने क्या कुछ दांव पे है, इस रिश्ते की सूरत में,
एक तो मेरी जान लगी है, कुछ तेरे जज्बात भी।
साथ मेरे हां सहर तक जागती है रात भी।

मेरे सफर की हर राहे, तुझपे आकर रुकती है,
तू ही सफर, मंज़िल तू ही और तू ही शुरवात भी।
साथ मेरे हां सहर तक जागती है रात भी।

आ जाओ, सुलह हो जाए, मुझमे और ज़माने में,
खुद सब से बिगड़ गए है 'शफ़क़' के तालुखात भी।
साथ मेरे हां सहर तक जागती है रात भी।

Thursday 16 February 2017

ख्वाब

आपस में उलझ पड़े कुछ ख्वाब।
बिल्कुल बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

यतीम कर गए थे तुम जिनको,
मेरी आँखों में पले बढ़े कुछ ख्वाब।
देर तक बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

कोई सोया था पुरसुकूं बाहों में,
रातभर मैंने पढ़े कुछ ख्वाब।
देर तक बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

बुलंदी, कामयाबी, नाम ओ इनाम,
ख़ामख़ा ही मढ़े कुछ ख्वाब।
देर तक बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

ख़त्म कब होगी क़तार आँखों पे,
थके गए खड़े खड़े कुछ ख्वाब।
देर तक बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

मजबूरन सलवटों में छोड़ आया,
रात से ज्यादा बड़े कुछ ख्वाब।
देर तक बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

रातभर नींद गुलशन सी रही,
शाख़ से ऐसे झड़े कुछ ख्वाब।
देर तक बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

रात की ओढनी सितारों वाली,
रेशमी धागों से जड़ें कुछ ख्वाब।
देर तक बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

याद तेरी ही दिलाते है मुझे,
बेसबब यु ही अड़े कुछ ख्वाब।
देर तक बच्चो से लड़े कुछ ख्वाब।

Maa


ये ना पूछो

ये ना पूछो कैसे जागे, और फिर कैसे सोये है।
पूरी शब् तनहाई में, खुदसे लिपटकर रोये है।

गिनती के दो चार ही लम्हे हल्की फुल्की बातो के,
उन यादो के भारी सफ़हे फिर बरसो तक ढोये है।
पूरी शब् तनहाई में, खुदसे लिपटकर रोये है।

कोई अपना छूट गया था, सदियों तक ग़मगीन रहे,
और फ़लक को देखो उसने कितने तारे खोये है।
पूरी शब् तनहाई में, खुदसे लिपटकर रोये है।

सफर में कितने फुल खीले, जाने कितने ख़ार चुभे,
कुछ कुदरत ने रख्खे होंगे, ज्यादातर हमने बोये है।
पूरी शब् तनहाई में, खुदसे लिपटकर रोये है।

Monday 13 February 2017

इम्तेहां लेगा।


आंखरी सांस तक वो मेरी इम्तेहां लेगा।
पहले हौसला, फिर उम्मीद फिर जां लेगा।

मैं ये तक़दीर परस्ती से उभर तो जाऊ,
हाथ खुदसे फिर लकीरे नयी बना लेगा।
पहले हौसला, फिर उम्मीद फिर जां लेगा।

वो जिसे कोई ग़म नहीं है कुछ भी खोने का,
शिकस्त दे के उसे तू भी क्या मज़ा लेगा?
पहले हौसला, फिर उम्मीद फिर जां लेगा।

मुआफ़ करता नहीं गलतियां, इंसा की तरह
वो हर गलती का कुछ तो मुआवज़ा लेगा।
पहले हौसला, फिर उम्मीद फिर जां लेगा।

वो दिल ओ दिमाग, दोनों में है बेहतर मुझसे,
इल्ज़ाम मुझपे रखेगा और खुद सज़ा लेगा।
पहले हौसला, फिर उम्मीद फिर जां लेगा।

Friday 13 January 2017

डूब गया

दिन बिता और शाम हुयी, सूरज भी जब डूब गया।
रंग-ए-जमीं, नीला अम्बर, ये भी फिर सब डूब गया।

अजब तलब थी, गहराई थी, ख़ामोशी थी आँखों में,
बहोत देर तक तैर रहा था, जाने मैं कब डूब गया।
रंग-ए-जमीं, नीला अम्बर, ये भी फिर सब डूब गय।

यही सबब है, रंजिश का, मुझमे और मेरी मंज़िल में,
नज़र की दुरी पे साहिल था, मैं वही तब डूब गया।
रंग-ए-जमीं, नीला अम्बर, ये भी फिर सब डूब गया।

शायद मेरी रूह ने मुझको बाँध रखा था साँसों से,
वो महीन सी डोर जो टूटी, फिर मेरा शब् डूब गया।
रंग-ए-जमीं, नीला अम्बर, ये भी फिर सब डूब गया