Friday 15 April 2011

बोझल आँखे

बोझल आँखे, बिखरी जुल्फे,
कुछ सुस्त लकीरे माथे पे,
कुछ थका हुआ चेहरा फिर भी,
हलकी सी तबस्सुम होठो पे

इल्म नहीं अब कहा हो तुम,
कैसी हो और किस जहाँ हो तुम,
पर अब भी हर शब् मेरी ही,
बाहों में आकर सोती हो,
कुछ देर लिपटकर रोती हो,
मेरे चेहरे को तकती हो,
फिर आँखों पे बोसा रखती हो.

अक्सर लोग बिछड़ जाते है,
अपनी राह को बढ़ जाते है,
इश्क कभी पर मरता नहीं,
वो जिंदा रहता है यु ही,
कभी गज़लों में, कभी बातो में,
कुछ यादो में, जज्बातो में,
उन बेमौसम बरसातो में,
और कुछ ऐसी रातो में.
उधेड़ने लगा है...

कौन है जो जख्म पुराने उधेड़ने लगा है,
तेरे लहजे में मेरी गज़ले पढ़ने लगा है,


कीस सहरा में निचोड़ आउ ये अश्क-ए-समंदर,
बोझ पलको का बहोत ज्यादा बढ़ने लगा है.
कौन है जो जख्म पुराने उधेड़ने लगा है,

सुबह सुकून से गुजारी तेरे आँचल में माँ,
सूरज ज़िन्दगी का अब मगर चढ़ने लगा है.
कौन है जो जख्म पुराने उधेड़ने लगा है.

भर गया दिल खिलोने से शायद बच्चे का,
पहले खिलखिलाता था, अब उखड़ने लगा है.
कौन है जो जख्म पुराने उधेड़ने लगा है.

Monday 11 April 2011

कुछ अधूरी गज़ले...


मेरे आनेसे शकल उनकी, यु सवर आई है,
जैसे एक नज़्म जहन से रुख पे उतर आई है.


तेरे चेहरे को फकत हाथोसे छुआ था मैंने,
उम्र की धुंदली लकीर, फिरसे उभर आई है.
जैसे एक नज़्म जहन से रुख पे उतर आई है.

तेरी सोबत है, तो आबाद है गुलशन सारे,
या मेरी बेजान सी आँखों को नज़र आई है.
जैसे एक नज़्म जहन से रुख पे उतर आई है.

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लफ्जो में कड़वाहट भी, रंग अहसासों के फीके है,
मेरी गज़ले न लबो पे लो, सारे मिसरे अब तीखे है.


खामोश है सारे लफ्ज मगर, कागज़ में आवाज़ भी है,
पुरजो में फितरत है मेरी, लफ्जो में तेरे सालीखे है.
मेरी गज़ले न लबो पे लो, सारे मिसरे अब तीखे है.