Wednesday 27 March 2024

तब रहेगा प्रेम, बस

हो पूर्णता अर्पण स्वयम का,
त्याग निजता का, अहम का,
औदार्य सब शंका, वहम का।
तब रहेगा प्रेम, बस!

कोई झिझक, संकोच, दुविधा,
हिचकिचाहट या असुविधा,
स्वाहा जब होगी ये समिधा।
तब रहेगा प्रेम, बस!

तन, मन, रहन हो जाए दर्पण,
पर आधीन नही, समर्पण,
हो पुष्प जैसे प्रभु को अर्पण।
तब रहेगा प्रेम, बस!

हो स्वतंत्र, अधिकार ना हो,
उम्मीदों का भार ना हो,
अनिवार्यता आधार ना हो।
तब रहेगा प्रेम, बस!

तन, मन, जहन, सब बांट ले,
अनुमान,शंका छांट ले,
बाहों में भरकर, डांट ले।
तब रहेगा प्रेम, बस!

हम, हम रहे, बदले नही,
किसी और रंग ढले नही,
हां, ये न हो संग चले नही।
तब रहेगा प्रेम, बस!


Wednesday 24 January 2024

प्राण प्रतिष्ठा


गर्वित है हम, प्राण प्रतिष्ठा,
प्रभु राम की कर पाए,
जयघोष, वंदना दो अक्षर के,
दिव्य नाम की कर पाए।
रामराज के स्वप्नपूर्ति का,
असली इम्तेहान है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।

ये संकल्प, ये दृढ़ निश्चय,
उम्मीद है सबके मन में हों।
राजा में हो राम की निष्ठा,
राम प्रतिष्ठित जन में हो।
कोदंड धनुष है प्रजा राम की,
’राजा’ राम का बाण है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।

केवल प्राण प्रतिष्ठा न थी,
पूर्ण प्रतिष्ठित राम हुए
धर्म, मर्म, मर्यादा, नीति,
सहित अनुष्ठित राम हुए।
उस मूरत को दिव्य दृष्टि है,
वो ना केवल पाषाण है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।

राग, द्वेष, सत्तालोलुपता,
राम राज अनुकूल नहीं,
अहम, अनीति, आडंबर, सब
रामराज के मूल नही।
त्याग, क्षमा, कर्मठता, करुणा,
राजा के परिमाण है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।

अब आवश्यक है मुखिया भी,
राजा भरत सम राज करे।
जो रामनीति के विपरीत हो,
वो सब करने में लाज करे।
भारतवर्ष के आगम के,
राम ही तो परित्राण है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।


 

मन नहीं भरता।

रोज़ाना धोखे खाने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।

ये इश्क भी है बिल्कुल जैसे की मयकशी,
ताउम्र ये मयखाने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।

मुमकिन ही नहीं कोई नया आए नज़र में,
जब तक के पुराने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।

उनका शुमार न हो अगर सामयिन में,
फिर महफिल को सुनाने से मन नहीं भरता। 
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।

वैसे तो हर एक चीज से अब ऊब गए है,
फिर भी क्यों जीए जाने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम कि ज़माने से मन नहीं भरता।

काफ़ी है गुजर बसर को अब तक की कमाई,
कंबख्त क्यों कमाने से मन नहीं भरता?
कैसे हो तुम कि ज़माने से मन नहीं भरता।

बेकरां है ’शफ़क’ मन के तक़ाजों का समंदर,
किसी न किसी बहाने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।



Friday 12 January 2024

संभल गए।

हम कहते कहते संभल गए।
कयी हादसे यू ही टल गए।

खामोशी का असर था यूं,
की लफ्ज़ सारे जल गए।
कयी हादसे यू ही टल गए।

उम्मीद होती तो टूटती,
ये ख्वाब थे तो पल गए।
कयी हादसे यू ही टल गए।

अब दीयों का दौर है,
सूरज थे जो वो ढल गए।
कयी हादसे यू ही टल गए।

हम रूह थे तो वही रहे,
वो जिस्म थे तो बदल गए।
कयी हादसे यू ही टल गए।

Sunday 7 January 2024

समय

वही जिसने डाला था मुश्किल में मुझको,
बनकर सहायक वही अब खड़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।

जो मेरे लिए है बुरा वो भी आखिर,
किसी के लिए तो भला भी वो होगा,
जलायी है जिसने ये मेरी उम्मीदें,
कभी तो कहीं खुद जला भी वो होगा।
बुनी है समय ने ये दो रंगी माला ,
हमने नही सिलसिला ये गढ़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।

कभी न कभी तो सभी देंगे पीड़ा,
कभी न कभी सारे भ्रम भंग होंगे,
सभी संगी साथी है सीमित समय के,
आजीवन, अकारण नहीं संग होंगे।
कहा कब लड़ाई किसी और की फिर,
निस्वार्थ हो और कोई लड़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।

जो अब है, जरूरी नहीं, कल भी होगा,
सृष्टि में कुछ सार्वभौमिक नही है।
जो कल तक गलत था सभी की नजर में,
वक्त बदला तो वो शत प्रतिशत सही है।
अपनी मर्जी से बदलाव लाए नहीं हम,
बदले हालात हमको बदलना पड़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।

हम पतंग, है धागा समय का ये चक्कर,
उसी के इशारों पे उड़ते है सारे,
ये रिश्ते ये नाते है केवल आडंबर,
निजहित के कारण ही जुड़ते है सारे।
देखो अंधेरा घना है किसी पर,
उसी वक्त सूरज किसी का चढ़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।




Monday 11 December 2023

चालीस साल

साथ में जीते चालीस साल।
कैसे बीते चालीस साल।

खुशियां छोटी छोटी थी,
मीठी दाल और रोटी थी,
ज्यादातर संघर्ष रहा,
किंतु उसमे में भी हर्ष रहा,
ना मद मत्सर ना क्षोभ रहा,
ना ईर्ष्या थी ना लोभ रहा,
जो भी संभव था किया किए,
जो दे सकते थे दिया किए,
हम चरित्र में उत्कृष्ट रहे,
समाधानी संतुष्ट रहे,
बस हालातों में ढलते रहे,
जैसे भी हो पर चलते रहे,
हसीं हसीं में गुजरे कुछ,
कुछ आंसू पीते चालीस साल।
कैसे बीते चालीस साल।

प्रारंभ महल से सफर किया,
एक कमरे में भी बसर किया,
जीवनभर खुदको क्षीण किया,
पर बच्चों को स्वाधीन किया,
अगिनत समझौते किए मगर,
नैतिक मूल्यों पे जिए मगर,
विपदाओ में भी ध्यान रखा, 
गिरवी ना स्वाभिमान रखा,
धन संचित करना ना आया,
जो पा सकते थे ना पाया,
विपरीत समय मजबूर भी थे,
पर फिर भीतर मगरूर भी थे,
कितने ही जीवन भरने में,
हमने रीते चालीस साल।
कैसे बीते चालीस साल।

कुछ देर ठहर पीछे देखो,
कितने पौधे सींचे देखो,
ये इतने बरस समर्पण में,
चेहरा तो देखो दर्पण में,
ये झुर्री, लकीरें भालो पर,
ये उम्र के गढ्ढे गालों पर,
हम खर्च हुए कितना अब तक,
क्या मिला हमें उतना अब तक?
छोड़ो ये हिसाबी बाते है,
हमें कहां गणित ये आते है,
हम खुदके के लिए इंसाफ करे,
जो भी था सबको माफ करे,
बेशर्त ये साझेदारी है,
संघर्ष अभी भी जारी है,
जो तुम ना होते संगी तो,
कैसे जीते चालीस साल।
ऐसे बीते चालीस साल।

दोहे

गीता, रामायण, वेद का इतना सा है मर्म।
जो स्वाभाविक, सहज है वो केवल है, कर्म।
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'मैं' क्या है, मैं कौन हूं, बस इतना ले जान।
सारी उलझन है यहीं, यही तो एक निदान।
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बड़ी कहानी का कोई, छोटा सा किरदार।
है इतनी भूमिका तेरी, इतना सा विस्तार।
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जन्म जन्म के कर्म है जन्म जन्म के फल।
आज किये कोइ कर्म का फल चाहे है कल।
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दांव, पेच, बुद्धिमता, है तेरे हथियार।
सच्चाई है ढाल मेरी, अब मैं भी तैयार।