Friday 24 February 2017

जागती है रात भी।

मेरी सब सुनती भी है,करती है अपनी बात भी।
मेरे साथ रोज़ सहर तक जागती है रात भी।

हालातो ने मुझे बनाया, मुझसे फिर हालात बने,
गुनाहगार दोनों ही है, मैं और ये हालात भी।
साथ मेरे हां सहर तक जागती है रात भी।

जाने क्या कुछ दांव पे है, इस रिश्ते की सूरत में,
एक तो मेरी जान लगी है, कुछ तेरे जज्बात भी।
साथ मेरे हां सहर तक जागती है रात भी।

मेरे सफर की हर राहे, तुझपे आकर रुकती है,
तू ही सफर, मंज़िल तू ही और तू ही शुरवात भी।
साथ मेरे हां सहर तक जागती है रात भी।

आ जाओ, सुलह हो जाए, मुझमे और ज़माने में,
खुद सब से बिगड़ गए है 'शफ़क़' के तालुखात भी।
साथ मेरे हां सहर तक जागती है रात भी।

2 comments:

Unknown said...
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Ajit Pandey said...
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