Monday 11 December 2017

कल रात

कल रात कुछ लम्हो की कहा सुनी हुई है शायद,
सहर के लम्हो के माथे पर हैरानी के घाव लगे थे,
हर लम्हे की चाल भी धीमी और थकी सी लगती थी,
ज़ख्मो से बेज़ार, शरमिंदा, आँखों में आंसू लेकर,
जाने क्या उम्मीद लिए सब मेरी ज़ानिब देखते थे,
कौन ग़लत था, कौन सही था,
क्या सबब था, क्या नहीं था,
खुदा ही जाने या फिर उन हालात को मालूम,
जो एकलौता गवाह है कल रात के सारे किस्सो का,
गुज़र चुके वो सब लम्हे, जख्मी थे पर ज़िंदा थे,
इतने साफ़ नज़र आते थे, जैसे अभी इस दौर के हो,
कुछ देर रुके, फिर लिपट कर मुझसे,
फूट फूट के रोने लगे, जैसे लड़कर आपस में,
बच्चे रोने लगते है,
वक़्त ने अपने हाथों से फिर सबके आंसू साफ़ किये,
सभी गलतियां, सारे गुनाह कुछ न कहे ही माफ़ किये,
अक्सर यही होता है कि,
लम्हो के छोटे झग़डे, नोक झोंक और बहासबाजिया,
वक़्त, बिना कुछ कहे सुने ही, यु सुलझाता आया है,
लम्हे आखिर छोटे है, मासूम बहोत है, लड़ते है,
वक़्त बड़ा है, उम्रदराज़ है हर मसले का हल ही है।

कल रात कुछ लम्हो की कहा सुनी हुई है शायद,
सहर के लम्हो के माथे पर हैरानी के घाव लगे थे।

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