Tuesday 3 July 2012

चाँद की धुंधली रोशनी में....



चाँद की धुंधली रोशनी में,
खयालो की उंगली थामे,
अक्सर उस मरासिम की सैर पे निकालता हु.

वही जाना पहचाना रास्ता, वही मोड़,
वही मील के पत्थर, वही मौसम,
कुछ भी तो नहीं बदला,
और बदले भी कैसे,
इन रास्तो पे मेरे अलावा कौन आता होगा?
शायद तुम? शायद नहीं...
तुम्हारे कदमो के निशां मिलते है पर,
कही कही, धुंधले धुंधले,
मिटे नहीं है, पर मिटने को है,
तुम्हारी खुशबू हवा के झोंको से कभी कभी आती है,
छूकर गुजर जाती है
लिपटकर साथ नहीं चलती मेरे.
ख्वाबो के टुकडे कई दफा चुभते है मुझको,
उम्मीदे बूढ़े दरख़्त की तरह,
झुक गयी है, सुख गयी है,
अब भी कुछ देर उनकी पनाह में बैठता हु,
छाव मिले न मिले, राहत मिलती है यक़ीनन,
नमी महसूस होती है सबा में आज भी,
सिसकिय पत्तो की सरसराहट में सुनाई देती है साफ़,
उस आखरी मोड़ तक जब पहुचता हु,
तो दो रस्ते दिखाई देते है,
एक तुम्हारा और एक हम दोनोका,
तुम्हारे रास्ते की ओर ताकता हु,
नज़र दूर तक जाती है, तलाशती है तुम्हे,
तुम नहीं होती हो, कही नहीं,
नज़र उदास लौट आती है मेरे पास,
और फिर मै, चल पड़ता हु हम दोनोके रास्ते पर,
जहा अब मै हु और तुम्हारा ना होना!

चाँद की धुंधली रोशनी में,
खयालो की उंगली थामे,
अक्सर उस मरासिम की सैर पे निकालता हु.
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अहसां ही सही, अबके दफा मेरे लिए.
वो मरासीम चाहता है उसे फिरसे जिए.

1 comment:

Rishikesh Himanshu said...

Aaj tumne us raaste par akela chor diya... jin par humne sath chalne ki kasmein khyi thi...