Monday 12 September 2011

एक नज़्म: जिसने कल रात सोने नहीं दिया

चलो अब ये तकल्लुफ भी छोड़ दो,
मुझे देखकर शर्मिंदगी से मुस्कुराना,
एक सवाल 'कैसे हो' पूछकर,
जवाब में ' मै भी ठीक ही हु' बताना.

मुझको इल्म है सच कहोगी,
तो बहोत दर्द होगा मुझको,
पर क्या तुम्हारे तासुरो की जुबां नहीं जनता हु मै?
क्या तुम्हारे आँखों की चमक को नहीं महसूस कर सकता हु अब?
तुमको याद होगा, तुम्हारे आँखों की सुजन देखकर अश्को का हिसाब किया है कई दफा मैंने.
क्या तुम्हारे प्यार की शिद्दत को भूल चूका हु, की बस बातो को मान लूँगा?
मैंने तुम्हारे दर्द को तुम्हारी ख़ामोशी में महसूस किया है हमेशा.
तुम्हारी सिसकियो को पढ़ा है मैंने, सिर्फ उन्हें सुनकर तुम्हारे गम का अंदाजा लगाया है.
तुम्हारे होठो की कपकपाहट देखकर बता सकता हु तुम सच बोल रही हो या ...
मुझे तुम्हारे लफ्जो को समझना नहीं आता.
हमारे इश्क की जुबां में 'लफ्ज' कभी थे ही नहीं.
मैंने आज भी बस तुम्हारे तासुर पढ़े, नज़रे महसूस की,
तुम्हारे लफ्जो की दलीले झूटी थी न आज?
आज तुम क्यों खामोश नहीं थी " सबा "?
पर उस रिश्ते के लिए झूट भी क्यों बोले अब,
बेसबब उसकी मौत को क्यों मुश्किल करे.
मौत की तारीख तो मुकम्मल है उसकी.
बस इंतजार करो, और अगर याद रहे तो,
'उस' रोज़ कुछ आंसू बहा देना.

चलो अब ये तकल्लुफ भी छोड़ दो,
मुझे देखकर शर्मिंदगी से मुस्कुराना,
एक सवाल 'कैसे हो' पूछकर,
जवाब में ' मै भी ठीक हु' बताना.

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