Friday 14 October 2016

फिर क्यों तुम्हे मैं मात दू

मंज़िल हमारी भिन्न है, फिर क्यों तुम्हे मैं मात दू,
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।

है आज जो, परिणाम है गत कर्म, निर्णय, भाग् का,
मेरा है क्या सामर्थ्य जो विपरीत मैं हालात दू।
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।

क्या तुम्हारी जय पराजय मेरे ही आधीन है?
क्या हु मैं सूरज तुम्हारा दिन दू या की रात दू?
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।

शतरंज के तुम हो वज़ीर, प्यादे की सूरत कद मेरा,
मेरी है क्या औकात तुमको फांस लू, निजात दू।
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।

अंत जो इस खेल का हक़ में तुम्हारे ना हुआ,
अब तुम्हे उम्मीद मुझसे की नयी शुरुवात दू।
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।

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