Thursday 24 April 2014

Ek Nazm

दफ्तर से लौटकर जब घर क दरवाजा खोलता हु,
तन्हाई दौड़कर लिपट जाती है मुझसे
ख़ामोशी दिनभर कि सारी बाते दोहराती है
खिड़किया खोलता हु तो हवा बालोँ को सहलाती है
फिर आईने मे खुदको देखता हु, सुकून मिलता है
की इस घर मे एक और चेहरा अब भी रहता है
बिस्तर कि सिलवटे सुबह से शाम तक वैसी हि पडी रहतीं है,
सुस्त, थकी हुई
तुम्हारे जाने के बाद इन सब ने हि तो संभाला है मुझे,
पर अब डर सा लगता है
की कोई फिरसे आकर इन्हे निकाल न दे घर से,
आदत सी हो गयी है अब इनकी, उतनी हि जितनी कभी तुम्हारी थी
अब मै नहीं चाहता की दरवाजा खुलने पे
कोई और आकर लिपट जाये मुझसे,
अब किसी और से दिन कि सारी बाते नहीं बाट पाउ शायद
ये तन्हाई तुमने दिया हुए आख़री तौफा है मेरे पास,
इसे भी खो दिया तो क्या बचेगा फ़िर मेरे पास.

किसी और के होने से भी बेहतर है तेरा ना होना।

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