चाँद खिड़की पे..
चाँद खिड़की पे ठहरा रहा रातभर,
नींद पे सख्त पहरा रहा रातभर.
आँख जलती रही और पिघलती रही,
सर्द मौसम में सहरा रहा रातभर.
नींद पे सख्त पहरा रहा रातभर.
ओस की बूंद थी या चाँद का दर्द था ?
सदमा क्या था की गहरा रहा रातभर?
नींद पे सख्त पहरा रहा रातभर.
Friday, 9 December 2011
Wednesday, 16 November 2011
रात तनहा सहर तक जाएगी...
शाम फिर खाली हाथ आएगी,
रात तनहा सहर तक जाएगी.
करवटों में, कभी सुनी छतो पे,
रात क्या नींद ढूंड पायेगी?
रात तनहा सहर तक जाएगी.
चाँद खिड़की से झाकेगा आदतन,
चांदनी फिरसे दिल जलाएगी.
रात तनहा सहर तक जाएगी.
लफ्ज आँखों में झिलमिलायेंगे
नज़्म तकिये में सर छुपाएगी.
रात तनहा सहर तक जाएगी.
शाम फिर खाली हाथ आएगी,
रात तनहा सहर तक जाएगी.
करवटों में, कभी सुनी छतो पे,
रात क्या नींद ढूंड पायेगी?
रात तनहा सहर तक जाएगी.
चाँद खिड़की से झाकेगा आदतन,
चांदनी फिरसे दिल जलाएगी.
रात तनहा सहर तक जाएगी.
लफ्ज आँखों में झिलमिलायेंगे
नज़्म तकिये में सर छुपाएगी.
रात तनहा सहर तक जाएगी.
Monday, 17 October 2011
दोहे:
फसले सब लज्जीत हुई,खेतो ने किया उपवास,
माँ ने जब बेटा रखा गिरवी शहर के पास.
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देहातो की सडको सा मेरा जीवनमान,
दिन रहते तक भीड़ रहे, रातो में सुनसान.
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बंटवारे के अंत में सब बेटे चुपचाप,
जर जमीन तक ठीक था, कौन रखे माँ बाप.
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फसले सब लज्जीत हुई,खेतो ने किया उपवास,
माँ ने जब बेटा रखा गिरवी शहर के पास.
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देहातो की सडको सा मेरा जीवनमान,
दिन रहते तक भीड़ रहे, रातो में सुनसान.
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बंटवारे के अंत में सब बेटे चुपचाप,
जर जमीन तक ठीक था, कौन रखे माँ बाप.
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रुबाई 2: "Madhushala" Extended
घूंट घूंट पे फिर जलती है,
सीने में वो एक ज्वाला,
बात बात पे रो पड़ता है,
जाने क्यों पीनेवाला.
साकी तेरे दर पे भी अब,
सुकूं रिंद को नहीं मिलता,
मुझे रज़ा दे, तुझे मुबारक,
ये तेरी नयी मधुशाला.
____________________________________
साधू मौलवी ने बटवारा,
मंदिर मस्जिद का कर डाला,
मुस्लिप को पैमाना दिया,
हिन्दू के हाथो में प्याला.
वाईज गौर से देख जरा,
हिन्दू मुस्लिम की सोबत को,
प्रेम, इश्क है हर पैमाना,
काबा काशी है मधुशाला.
घूंट घूंट पे फिर जलती है,
सीने में वो एक ज्वाला,
बात बात पे रो पड़ता है,
जाने क्यों पीनेवाला.
साकी तेरे दर पे भी अब,
सुकूं रिंद को नहीं मिलता,
मुझे रज़ा दे, तुझे मुबारक,
ये तेरी नयी मधुशाला.
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साधू मौलवी ने बटवारा,
मंदिर मस्जिद का कर डाला,
मुस्लिप को पैमाना दिया,
हिन्दू के हाथो में प्याला.
वाईज गौर से देख जरा,
हिन्दू मुस्लिम की सोबत को,
प्रेम, इश्क है हर पैमाना,
काबा काशी है मधुशाला.
रुबाई : "Madhushala" Extended
बस बेहोशी की खातीर,
पिता है ये मतवाला,
सच्चाई से दूर रखेगी,
कब तक ये झूटी हाला
होश में जो ये देख लिया तो,
कैसे होश संभालूँगा,
मै मदिरा, मै ही साकी,
तनहा मेरी मधुशाला.
____________________________________
जरा हाथ कम्पन हुआ,
छलक गयी पुरी हाला,
जरा नशे में लडखडाया मै,
क्यों तुमने न संभाला,
मुझको साकी बड़ा नाज़ था,
तेरे नशे की शिद्दत पर,
कितने नाज़ुक प्याले थे सब,
बड़ी कमज़ोर थी मधुशाला.
बस बेहोशी की खातीर,
पिता है ये मतवाला,
सच्चाई से दूर रखेगी,
कब तक ये झूटी हाला
होश में जो ये देख लिया तो,
कैसे होश संभालूँगा,
मै मदिरा, मै ही साकी,
तनहा मेरी मधुशाला.
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जरा हाथ कम्पन हुआ,
छलक गयी पुरी हाला,
जरा नशे में लडखडाया मै,
क्यों तुमने न संभाला,
मुझको साकी बड़ा नाज़ था,
तेरे नशे की शिद्दत पर,
कितने नाज़ुक प्याले थे सब,
बड़ी कमज़ोर थी मधुशाला.
Monday, 10 October 2011
एक नज़्म.....
कल यु ही बिखरे कमरे को समटते हुए,
कुछ पुरजे मिले काफी पुराने, काफी खस्ता,
कुछ हर्फ़ दिखे धुन्दले धुन्दले, हा तुमसे ही बाबस्ता,
आंसुओ की बूंदों के कुछ ताज़ा तरीन निशाँ भी थे,
उंगली से जब चखकर देखा,
गम का जायका वही था अब भी, नमकीन बहोत,
कागज़ भी कमज़ोर हो चूका था,
हर्फो के बोझ से बेजार बहोत,
तुम्हारी खुशबु आ रही थी हल्की हल्की,
पर तुमने छुआ नहीं था उस पुर्जे को कभी,
शायद उसी दिन तुम मुझसे आखरी दफा मिली थी,
शायद इस पुरजे में लपेटकर रखा था मैंने उस विसाल-इ-शब् को,
तारीख मिट चुकी होगी या शायद लिखी ही न हो,
पर धुल हटाकर देखू तो वो दिन साफ़ नज़र आता है अब भी,
स्याही से लिखे हर्फ़ वक़्त के साथ धुन्दले हो गए है सभी तक़रीबन,
सूखे हुए आसुओ के निशाँ लेकिन अब भी वैसे ही है ताज़ा, नमकीन.
काश वो आखरी नज़्म मैंने स्याही से न लिखी होती....
कल यु ही बिखरे कमरे को समटते हुए,
कुछ पुरजे मिले काफी पुराने, काफी खस्ता,
कुछ हर्फ़ दिखे धुन्दले धुन्दले, हा तुमसे ही बाबस्ता.
कल यु ही बिखरे कमरे को समटते हुए,
कुछ पुरजे मिले काफी पुराने, काफी खस्ता,
कुछ हर्फ़ दिखे धुन्दले धुन्दले, हा तुमसे ही बाबस्ता,
आंसुओ की बूंदों के कुछ ताज़ा तरीन निशाँ भी थे,
उंगली से जब चखकर देखा,
गम का जायका वही था अब भी, नमकीन बहोत,
कागज़ भी कमज़ोर हो चूका था,
हर्फो के बोझ से बेजार बहोत,
तुम्हारी खुशबु आ रही थी हल्की हल्की,
पर तुमने छुआ नहीं था उस पुर्जे को कभी,
शायद उसी दिन तुम मुझसे आखरी दफा मिली थी,
शायद इस पुरजे में लपेटकर रखा था मैंने उस विसाल-इ-शब् को,
तारीख मिट चुकी होगी या शायद लिखी ही न हो,
पर धुल हटाकर देखू तो वो दिन साफ़ नज़र आता है अब भी,
स्याही से लिखे हर्फ़ वक़्त के साथ धुन्दले हो गए है सभी तक़रीबन,
सूखे हुए आसुओ के निशाँ लेकिन अब भी वैसे ही है ताज़ा, नमकीन.
काश वो आखरी नज़्म मैंने स्याही से न लिखी होती....
कल यु ही बिखरे कमरे को समटते हुए,
कुछ पुरजे मिले काफी पुराने, काफी खस्ता,
कुछ हर्फ़ दिखे धुन्दले धुन्दले, हा तुमसे ही बाबस्ता.
Tuesday, 4 October 2011
तन्हाई...
कोई आवाज़ जब इन दरिचो से आती है,
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
हर आहट पे बेवजह गौर करता हु,
एक उम्मीद है जो अब भी आजमाती है.
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
तेरे न होने पे रोकर के जो थक जाऊ,
तुम होते तो? इस ख्याल पे रुलाती है.
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
मै आईने में देखता हु चेहरा अपना,
दीवार पे लगी 'वो' तस्वीर मुस्कुराती है.
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
कोई आता है चूमता है मेरे हाथो को.
कोई आवाज़ मेरी गज़ले गुनगुनाती है.
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
कोई आवाज़ जब इन दरिचो से आती है,
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
हर आहट पे बेवजह गौर करता हु,
एक उम्मीद है जो अब भी आजमाती है.
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
तेरे न होने पे रोकर के जो थक जाऊ,
तुम होते तो? इस ख्याल पे रुलाती है.
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
मै आईने में देखता हु चेहरा अपना,
दीवार पे लगी 'वो' तस्वीर मुस्कुराती है.
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
कोई आता है चूमता है मेरे हाथो को.
कोई आवाज़ मेरी गज़ले गुनगुनाती है.
मेरी तन्हाई चौंकती है, सहम जाती है.
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