Friday, 13 June 2025

कलमकार

कलमकार तेरी गलतियों, नादानी से।
किरदार बड़े हो रहे है कहानी से।

खतरे में आ गया है देख समंदर का वजूद,
हवा की रंजीश हो गई सुना है पानी से।
किरदार बड़े हो रहे हैं कहानी से।

मैंने एक नज़्म लिखी थी कभी तेरे लिए ही,
लफ्ज़ मुकरने लगे है अपने मानी से।
किरदार बड़े हो रहे है कहानी से।

जिसे पाने में  जहमत नही उठानी पड़ी,
वो मैंने खो भी दिया फिर बड़ी आसानी से।
किरदार बड़े हो रहे है कहानी से।

मुश्किल है निभाना मुझसे।

बहोत सोचकर राब्ता बनाना मुझसे।
तंग आ चुका है ये ज़माना मुझसे।

बहोत आसान हु मैं, इसलिए शायद,
बहोत मुश्किल है निभाना मुझसे।
तंग आ चुका है ये ज़माना मुझसे।

मेरी सोहबत शराब की लत है,
खुदको जितना हो बचाना मुझसे।
तंग आ चुका है ये ज़माना मुझसे।

मैं तेरे पास बैठ, देखता हु चांद कभी,
इसका रिश्ता है ज़रा और पुराना मुझसे।
तंग आ चुका है ये ज़माना मुझसे।

मेरी तारीफ नहीं मुमकिन मगर जानां,
मेरे ऐब, हो मुमकिन तो छुपाना मुझसे।
तंग आ चुका है ये ज़माना मुझसे।

Thursday, 29 May 2025

ठहर जाते है।

पता नहीं ये रास्ते अब किधर जातें है।
इसी मकाम पे कुछ देर ठहर जाते है।

ये दोस्ती, ये मोहब्बत, ये बिछड़ना, ये तन्हाई,
तमाम दौर है, और दौर गुज़र जाते है।
इसी मकाम पे कुछ देर ठहर जाते है।

इससे बेहतर की उतर जाएं अपनी नजर से,
हमने सोचा तेरी नजर से उतर जातें है।
इसी मकाम पे कुछ देर ठहर जाते है।

मस्जिद में सुकूं है, ना मयकदे में ही करार,
जो कहीं के नहीं रहते, किधर जातें है?
इसी मकाम पे कुछ देर ठहर जाते है।

हमने देखे है अक्सर सभी बिगड़े हुए रिश्ते,
जरूरत केे तक़ाजो पे सुधर जाते है।
इसी मकाम पे कुछ देर ठहर जाते है।

Friday, 16 May 2025

रात

टूटकर आसमान से बिखर रही है रात।
उजाले डूब गए है, निखर रही है रात।

तुम थे तो उतरता था चांद छत पे मेरे,
अब ये हाल है कि बस गुज़र रही है रात।
उजाले डूब गए है, निखर रही है रात।

उजाले दिन के भी शरमा के मूंद ले आंखे,
कहीं ज़ेवर की तरह यूं उतर रही है रात।
उजाले डूब गए है, निखर रही है रात।

हमने यूं तय किया उजालों अंधेरों का सफर,
दिन उम्मीद रहे तो फिक़र रही है रात।
उजाले डूब गए है, निखर रही है रात।

तेरी आंखों में 'शफ़क' झांकने से लगता है,
नूर ए दरिया से शगुफ्ता उभर रही है रात।
उजाले डूब गए है, निखर रही है रात।

इन दिनों रोज़ सहर आंखों में दिखती है थकन 
जैसे मुश्किल कोई लंबा सफर रही है रात।
उजाले डूब गए है, निखर रही है रात।

सहर वो बचता है मुझसे नज़र मिलाने में,
खामखां रोशनी में क्यों मुकर रही है रात।
उजाले डूब गए है, निखर रही है रात।



Wednesday, 10 July 2024

निकल आते है।

आंसू, गुज़रे ज़माने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

नींद जैसे ही उतरती है थकी आंखो में,
खयाल कितने सिरहाने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

कई चीजे नज़र आती नही उजालों में,
तारे, सूरज को बुझाने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

मैं जो तनहाई में तकता हूं आसमां की तरफ,
चेहरे खास ओ पुराने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

कई मसले जिनके हल निकलते ही नहीं,
ज़रा सा 'मैं' को झुकाने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

है कोई मोम सा बच्चा मेरे सीने में 'शफ़क़',
आसूं वही तो कहीं से पिघल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

जीने मरने का फलसफा और कुछ भी नही,
मैले कपड़े कही ख़ला से बदल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

Wednesday, 8 May 2024

कुछ भी नही।

बाक़ी ऐन–ए–हयात में, कुछ भी नही।
जाएगा अपने साथ में, कुछ भी नही।

ऐसे तो मैं ही मैं हूं कर्ता ओ कर्म, कारण,
वैसे हमारे हाथ में, कुछ भी नही।
जाएगा अपने साथ में, कुछ भी नही।

मोहब्बत, मोहब्बत, मोहब्बत के अलावा,
जरूरी तालुकात में, कुछ भी नही।
जाएगा अपने साथ में, कुछ भी नही।
 
सोचूं, तो कायनात की हर चीज है मुझमें,
देखू, मैं कायनात में, कुछ भी नही।
जाएगा अपने साथ में, कुछ भी नही।

Sunday, 5 May 2024

तब गज़ल बनी।

जो कहना था, न कह सका, तब गज़ल बनी।
मैं जब भी, मैं न रह सका, तब गज़ल बनी।

मुश्किल से कोई दर्द पककर आंसू तो बना,
और फिर न बह सका, तब गज़ल बनी।
मैं जब भी मैं न रह सका, तब गज़ल बनी।

सह लिया, जो पी गया, वो हिस्सा बना मेरा,
थोड़ा जो न सह सका, तब गज़ल बनी।
मैं जब भी मैं न रह सका, तब गज़ल बनी।

किस्से कहानी बन गए टूटे हुए सब ख्वाब,
वो ख्वाब, जो न ढह सका, तब गज़ल बनी।
मैं जब भी मैं न रह सका, तब गज़ल बनी।