Wednesday 10 July 2024

निकल आते है।

आंसू, गुज़रे ज़माने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

नींद जैसे ही उतरती है थकी आंखो में,
खयाल कितने सिरहाने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

कई चीजे नज़र आती नही उजालों में,
तारे, सूरज को बुझाने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

मैं जो तनहाई में तकता हूं आसमां की तरफ,
चेहरे खास ओ पुराने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

कई मसले जिनके हल निकलते ही नहीं,
ज़रा सा 'मैं' को झुकाने से निकल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

है कोई मोम सा बच्चा मेरे सीने में 'शफ़क़',
आसूं वही तो कहीं से पिघल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

जीने मरने का फलसफा और कुछ भी नही,
मैले कपड़े कही ख़ला से बदल आते है।
कोई न कोई बहाने से निकल आते है।

Wednesday 8 May 2024

कुछ भी नही।

बाक़ी ऐन–ए–हयात में, कुछ भी नही।
जाएगा अपने साथ में, कुछ भी नही।

ऐसे तो मैं ही मैं हूं कर्ता ओ कर्म, कारण,
वैसे हमारे हाथ में, कुछ भी नही।
जाएगा अपने साथ में, कुछ भी नही।

मोहब्बत, मोहब्बत, मोहब्बत के अलावा,
जरूरी तालुकात में, कुछ भी नही।
जाएगा अपने साथ में, कुछ भी नही।
 
सोचूं, तो कायनात की हर चीज है मुझमें,
देखू, मैं कायनात में, कुछ भी नही।
जाएगा अपने साथ में, कुछ भी नही।

Sunday 5 May 2024

तब गज़ल बनी।

जो कहना था, न कह सका, तब गज़ल बनी।
मैं जब भी, मैं न रह सका, तब गज़ल बनी।

मुश्किल से कोई दर्द पककर आंसू तो बना,
और फिर न बह सका, तब गज़ल बनी।
मैं जब भी मैं न रह सका, तब गज़ल बनी।

सह लिया, जो पी गया, वो हिस्सा बना मेरा,
थोड़ा जो न सह सका, तब गज़ल बनी।
मैं जब भी मैं न रह सका, तब गज़ल बनी।

किस्से कहानी बन गए टूटे हुए सब ख्वाब,
वो ख्वाब, जो न ढह सका, तब गज़ल बनी।
मैं जब भी मैं न रह सका, तब गज़ल बनी।

हो सकता है।

मीठा पानी, और समंदर? हो सकता है।
कोई झरना गहरा अंदर, हो सकता है।

वो मेरी हर बात पे हामी भरता है,
प्रेम, समर्पण, निष्ठा या डर हो सकता है।
कोई झरना गहरा अंदर, हो सकता है।

ऐसे देखो मुश्किल, दुष्कर, और कठिन,
वैसे ये एक अदभुत अवसर हो सकता है।
कोई झरना गहरा अंदर, हो सकता है।

मेरे हाल पे हसनेवालो, याद रहे,
वक्त बुरा है और ये बेहतर हो सकता है।
कोई झरना गहरा अंदर, हो सकता है।

पहले खुदमे अर्जुन वाली बात तो ला,
तेरा सहायक भी युगंधर हो सकता है।
कोई झरना गहरा अंदर, हो सकता है।


 


Wednesday 27 March 2024

तब रहेगा प्रेम, बस

हो पूर्णता अर्पण स्वयम का,
त्याग निजता का, अहम का,
औदार्य सब शंका, वहम का।
तब रहेगा प्रेम, बस!

कोई झिझक, संकोच, दुविधा,
हिचकिचाहट या असुविधा,
स्वाहा जब होगी ये समिधा।
तब रहेगा प्रेम, बस!

तन, मन, रहन हो जाए दर्पण,
पर आधीन नही, समर्पण,
हो पुष्प जैसे प्रभु को अर्पण।
तब रहेगा प्रेम, बस!

हो स्वतंत्र, अधिकार ना हो,
उम्मीदों का भार ना हो,
अनिवार्यता आधार ना हो।
तब रहेगा प्रेम, बस!

तन, मन, जहन, सब बांट ले,
अनुमान,शंका छांट ले,
बाहों में भरकर, डांट ले।
तब रहेगा प्रेम, बस!

हम, हम रहे, बदले नही,
किसी और रंग ढले नही,
हां, ये न हो संग चले नही।
तब रहेगा प्रेम, बस!


Wednesday 24 January 2024

प्राण प्रतिष्ठा


गर्वित है हम, प्राण प्रतिष्ठा,
प्रभु राम की कर पाए,
जयघोष, वंदना दो अक्षर के,
दिव्य नाम की कर पाए।
रामराज के स्वप्नपूर्ति का,
असली इम्तेहान है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।

ये संकल्प, ये दृढ़ निश्चय,
उम्मीद है सबके मन में हों।
राजा में हो राम की निष्ठा,
राम प्रतिष्ठित जन में हो।
कोदंड धनुष है प्रजा राम की,
’राजा’ राम का बाण है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।

केवल प्राण प्रतिष्ठा न थी,
पूर्ण प्रतिष्ठित राम हुए
धर्म, मर्म, मर्यादा, नीति,
सहित अनुष्ठित राम हुए।
उस मूरत को दिव्य दृष्टि है,
वो ना केवल पाषाण है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।

राग, द्वेष, सत्तालोलुपता,
राम राज अनुकूल नहीं,
अहम, अनीति, आडंबर, सब
रामराज के मूल नही।
त्याग, क्षमा, कर्मठता, करुणा,
राजा के परिमाण है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।

अब आवश्यक है मुखिया भी,
राजा भरत सम राज करे।
जो रामनीति के विपरीत हो,
वो सब करने में लाज करे।
भारतवर्ष के आगम के,
राम ही तो परित्राण है अब।
उस मूरत में प्राण है अब।


 

मन नहीं भरता।

रोज़ाना धोखे खाने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।

ये इश्क भी है बिल्कुल जैसे की मयकशी,
ताउम्र ये मयखाने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।

मुमकिन ही नहीं कोई नया आए नज़र में,
जब तक के पुराने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।

उनका शुमार न हो अगर सामयिन में,
फिर महफिल को सुनाने से मन नहीं भरता। 
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।

वैसे तो हर एक चीज से अब ऊब गए है,
फिर भी क्यों जीए जाने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम कि ज़माने से मन नहीं भरता।

काफ़ी है गुजर बसर को अब तक की कमाई,
कंबख्त क्यों कमाने से मन नहीं भरता?
कैसे हो तुम कि ज़माने से मन नहीं भरता।

बेकरां है ’शफ़क’ मन के तक़ाजों का समंदर,
किसी न किसी बहाने से मन नहीं भरता।
कैसे हो तुम की ज़माने से मन नहीं भरता।