Tuesday, 14 November 2017

हाय मर जाने के बाद।

बनके आंसू ही बहूँगा हाय मर जाने के बाद।
क्या, कहाँ, कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।

जीते जी ले ले मेरा सच्चा इक़बाल ए बयां,
या ख़ुदा किससे कहूंगा हाय मर जाने के बाद।
क्या कहाँ कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।

तब मुझे होने पे ग़म था, अब मुझे जाने का ग़म,
फिरसे गम ही ग़म सहूंगा हाय मर जाने के बाद।
क्या कहाँ कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।

दिल में चाहे ना सही, तेरी आँखों में तो हु,
बनके आंसू तो बहूँगा, हाय मर जाने के बाद।
क्या कहाँ कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।

ये भी वजह है प्यार की मुझमे मेरी औलाद में,
उसकी रगों में फिर बहूँगा हाय मर जाने के बाद।
क्या कहाँ कितना रहूँगा हाय मर जाने के बाद।।

Tuesday, 19 September 2017

चुप रहना है मुझको।

कितना कुछ कहना है मुझको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

मेरे हिस्से जो दर्द लिखा है,
उतना तो सहना है मुझको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

मैं मुझसे ही ढका हुआ हूं,
मैंने खुद पहना है खुदको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

आज इमारत बुलंद हु पर,
एक दिन तो ढहना है मुझको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

कोई समंदर तो थाम लेगा,
नदी हु फिर बहना है मुझको।
लेकिन चुप रहना है मुझको।

Wednesday, 21 June 2017

ग़म क्यों है।

ज़िन्दगी इतनी संगदिल, बेरहम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

आँखों के हिस्से आंसू है जरुरत से ज्यादा,
लबो के नाम तबस्सुम इतनी कम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

तू मुझे भूलने का दावा करता है तो फिर,
तेरी आँखों का किनारा अभी तक नम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

जो तेरे खयाल पे भी हक़ नहीं है अब मेरा,
फिर ये सुखन ये पुरज़े ये क़लम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

चाँद रोया है जमीं से लिपट के रात शायद,
हर एक शाख़ के फूलों पे ये शबनम क्यों है।
बाद ए ग़म भी एक और नया ग़म क्यों है।

ग़ज़ल ढूंढता हु।

मैं इस तरह परेशानियों का हल ढूंढता हु।
ग़मो के मलबे में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

मेरा माज़ी ही रहेगा मुस्तक़बील मेरा,
मैं हर आज में बीता हुआ कल ढूंढता हु।
ग़मो के ढेर में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

सहर आईने में, यु आँखों में अपनी,
मैं नींद में पड़े हुए खलल ढूंढता हु।
ग़मो के ढेर में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

जज्बा ए मोहब्बत कहु या की मिल्कियत,
मैं अपने बच्चे में खुदकी शकल ढूंढता हु।
ग़मो के ढेर में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

तू मेरी आँखों में ढूंढता है सच्चाई की चमक,
मैं अक्सर तेरी आँखों में कँवल ढूंढता हु।
ग़मो के ढेर में छुपी हुयी ग़ज़ल ढूंढता हु।

Wednesday, 14 June 2017

लगाव है।

कमरे की जो चीज़े है,जो रख रखाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

बिखरी है चार सु, बेतरतीब सी पड़ी है,
मुझसे जुडी हर चीज़ में मेरा स्वभाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

मैं बोलता वही हु, जो भी वो चाहता है,
है अहतराम उसका या फिर दबाव है?
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

किस्से कहानियां है दोस्ती में जान देना,
अब देने को दोस्ती में केवल सुझाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

ये रुतबा, ये पैसा, ये शोहरत, ये ताक़त,
मंज़िल ए मौत तक के ये सब पड़ाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

ये तंज़ मोहब्बत का कैसे किसे बताये,
आँखों में है समंदर, रुख पे अलाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

रिश्तो की सरहदों का नियम कोई टूटा है,
दोनों ही सिम्त देखो कितना तनाव है।
ये बेजान है सभी पर मुझको लगाव है।

Monday, 3 April 2017

ऊंचाई नापते है।


बड़ा मुश्किल है ये कहना कैसे ऊंचाई नापते है।
जिस्म का कद देखते है या परछाई नापते है।

बेहतर है, पूरा झूट ही अब कह दिया जाए,
फिर सब अपने हिसाब से सच्चाई नापते है।
जिस्म का कद देखते है या परछाई नापते है।

सर ए बाज़ार सस्ता न लगु अपने बच्चो को,
पहले चल ज़रा बाज़ार की महंगाई नापते है।
जिस्म का कद देखते है या परछाई नापते है।

पहाड़ो, कैसे मैं बौना कहु खामोश दरिया को,
वो दरिया है, दरियाओं की तो गहराई नापते है।
जिस्म का कद देखते है या परछाई नापते है।

Tuesday, 28 March 2017

सड़क

शाम से सहर तक जो एक
लंबी सड़क जाती है,
कुछ दूरी पर रात के घने जंगलों से,
होकर गुज़रना पड़ता है,
सुनसान, खामोश, अँधेरा,
मिलो लंबा सफर,
पुरानी यादो के कई,
घने दरख्तों से होकर
जाती है ये सड़क,
न कोई पक्का रास्ता,
न कोई अंदाज़ा की किस और निकले,
तसव्वुर के सूखे पत्तों की,
सरसराहट गूंजती है चार सु,
कुछ नज़्में, किसी पंछी की तरह,
कानो के पास से यकायक
आवाज़ करते हुए निकल जाती है,
खयालो के कितने ही,
रेंगते जानवर है इस जंगल में,
इस जंगल में, जाने कबसे,
यक़ीनन कुछ ज़हरीले भी है,
हो सकता काट भी ले,
ख्वाबो के कुछ धीमे उजाले,
चाँद सितारों जैसे ही कुछ,
कही कही पे दीखते है,
धुन्दले है पर, साफ़ नहीं है।
आधे सफर में यु ही अचानक,
एक सौंधी सी खुशबु आती है,
तेरा तसव्वुर, हा तेरा तसव्वुर,
उसी पुराने पौधे पे फिर,
खीला है आधा, महक रहा है,
अब ये जंगल, सुनसान, खामोश, अँधेरा,
खुशनुमा लगता है,
अब सारे तसव्वुर खामोश पड़े है,
ज़हरीले सब खयाल आब ओ हयात है अब,
वो नज़्म जो तब गुज़री थी आवाज़ में लिपटी,
अब कांधे पे आ बैठी है,
कानो में घुलती जाती है,
सहर को जाऊ, या ना जाऊ,
मुकाम करू, यही रात बिताऊँ,
कश्मकश में अब फिरसे हु,
एक नज़्म ने फिरसे रोक लिया है,
उसी सड़क पे,

शाम से सहर तक जो एक
लंबी सड़क जाती है।