Sunday, 7 January 2024

समय

वही जिसने डाला था मुश्किल में मुझको,
बनकर सहायक वही अब खड़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।

जो मेरे लिए है बुरा वो भी आखिर,
किसी के लिए तो भला भी वो होगा,
जलायी है जिसने ये मेरी उम्मीदें,
कभी तो कहीं खुद जला भी वो होगा।
बुनी है समय ने ये दो रंगी माला ,
हमने नही सिलसिला ये गढ़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।

कभी न कभी तो सभी देंगे पीड़ा,
कभी न कभी सारे भ्रम भंग होंगे,
सभी संगी साथी है सीमित समय के,
आजीवन, अकारण नहीं संग होंगे।
कहा कब लड़ाई किसी और की फिर,
निस्वार्थ हो और कोई लड़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।

जो अब है, जरूरी नहीं, कल भी होगा,
सृष्टि में कुछ सार्वभौमिक नही है।
जो कल तक गलत था सभी की नजर में,
वक्त बदला तो वो शत प्रतिशत सही है।
अपनी मर्जी से बदलाव लाए नहीं हम,
बदले हालात हमको बदलना पड़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।

हम पतंग, है धागा समय का ये चक्कर,
उसी के इशारों पे उड़ते है सारे,
ये रिश्ते ये नाते है केवल आडंबर,
निजहित के कारण ही जुड़ते है सारे।
देखो अंधेरा घना है किसी पर,
उसी वक्त सूरज किसी का चढ़ा है।
उसूलों का क़द क्या जरूरत के आगे,
भला कौन आखिर समय से बड़ा है।




Monday, 11 December 2023

चालीस साल

साथ में जीते चालीस साल।
कैसे बीते चालीस साल।

खुशियां छोटी छोटी थी,
मीठी दाल और रोटी थी,
ज्यादातर संघर्ष रहा,
किंतु उसमे में भी हर्ष रहा,
ना मद मत्सर ना क्षोभ रहा,
ना ईर्ष्या थी ना लोभ रहा,
जो भी संभव था किया किए,
जो दे सकते थे दिया किए,
हम चरित्र में उत्कृष्ट रहे,
समाधानी संतुष्ट रहे,
बस हालातों में ढलते रहे,
जैसे भी हो पर चलते रहे,
हसीं हसीं में गुजरे कुछ,
कुछ आंसू पीते चालीस साल।
कैसे बीते चालीस साल।

प्रारंभ महल से सफर किया,
एक कमरे में भी बसर किया,
जीवनभर खुदको क्षीण किया,
पर बच्चों को स्वाधीन किया,
अगिनत समझौते किए मगर,
नैतिक मूल्यों पे जिए मगर,
विपदाओ में भी ध्यान रखा, 
गिरवी ना स्वाभिमान रखा,
धन संचित करना ना आया,
जो पा सकते थे ना पाया,
विपरीत समय मजबूर भी थे,
पर फिर भीतर मगरूर भी थे,
कितने ही जीवन भरने में,
हमने रीते चालीस साल।
कैसे बीते चालीस साल।

कुछ देर ठहर पीछे देखो,
कितने पौधे सींचे देखो,
ये इतने बरस समर्पण में,
चेहरा तो देखो दर्पण में,
ये झुर्री, लकीरें भालो पर,
ये उम्र के गढ्ढे गालों पर,
हम खर्च हुए कितना अब तक,
क्या मिला हमें उतना अब तक?
छोड़ो ये हिसाबी बाते है,
हमें कहां गणित ये आते है,
हम खुदके के लिए इंसाफ करे,
जो भी था सबको माफ करे,
बेशर्त ये साझेदारी है,
संघर्ष अभी भी जारी है,
जो तुम ना होते संगी तो,
कैसे जीते चालीस साल।
ऐसे बीते चालीस साल।

दोहे

गीता, रामायण, वेद का इतना सा है मर्म।
जो स्वाभाविक, सहज है वो केवल है, कर्म।
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'मैं' क्या है, मैं कौन हूं, बस इतना ले जान।
सारी उलझन है यहीं, यही तो एक निदान।
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बड़ी कहानी का कोई, छोटा सा किरदार।
है इतनी भूमिका तेरी, इतना सा विस्तार।
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जन्म जन्म के कर्म है जन्म जन्म के फल।
आज किये कोइ कर्म का फल चाहे है कल।
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दांव, पेच, बुद्धिमता, है तेरे हथियार।
सच्चाई है ढाल मेरी, अब मैं भी तैयार।

Sunday, 11 June 2023

बिखरना था मुझे।

यूं ही गिरना था और उभरना था मुझे।
किनारों से मिलना था बिखरना था मुझे।

मैं मुश्किलों से भागकर भी कहाँ जाता,
गुज़रा जहां जहां से, गुजरना था मुझे।
किनारों से मिलना था बिखरना था मुझे।

बेहतर कोई मुझसे तेरी जुस्तजू में था,
तेरे दिल ओ नजर से उतरना था मुझे।
किनारों से मिलना था बिखरना था मुझे।

कैसा सवाब, क्या गुनाह, कैसी नेकियां,
तू जो भी करा रहा था करना था मुझे।
किनारों से मिलना था बिखरना था मुझे।

मैं रिंद था के साकी मेरे खुदा बता,
पीना था जाम ए ज़िस्त की भरना था मुझे।
किनारों से मिलना था बिखरना था मुझे।

Saturday, 14 January 2023

तुम्हे गर राम बनना है..

तुम्हे गर राम बनना है, अयोध्या छोड़नी होगी।

मुकुट एक राजगद्दी का सजाकर थाल पे होगा,
तिलक संभव है रघुकुल राज का भी भाल पे होगा।
मां की ममता पिता का हर्ष चरम उत्कर्ष पे होंगे,
बिना संघर्ष तारे भाग्य के भी अर्श पे होंगे।
तुम्हे पर राजपथ से राह अपनी मोड़नी होगी।
तुम्हे गर राम बनना है, अयोध्या छोड़नी होगी।

वांशागत सरल जीवन तज पाओगे लेकिन तुम?
कर्मभूमि जो जंगल है वहा जाओगे लेकिन तुम?
मनाएंगे तुम्हे सब लौटने की जिद पकड़ लेंगे,
तुम्हारे आप्त बनकर बेड़ियां तुमको जकड़ लेंगे।
बड़ी मजबूत होंगी बेड़ियां पर तोड़नी होगी।
तुम्हे गर राम बनना है, अयोध्या छोड़नी होगी।

मान सम्मान सिंहासन है मिल सकता विरासत में,
कला नेतृत्व की लेकिन नही मिलती अमानत में।
समदर्शी, समावेशक, स्वयंभू और सहायक तुम,
शत् सदियों के बन सकते हो तब आदर्श नायक तुम।
कई कड़ियां तुम्हे हर मोड़ पे बस जोड़नी होगी।
तुम्हे गर राम बनना है, अयोध्या छोड़नी होगी।

जीवनभर ये पथ तुमसे किंतु परित्याग मांगेगा,
कभी बनवास भेजेगा कभी बैराग मांगेगा।
'राजपथ' में सुविधा, सुख तथा प्रहर्ष है संभव,
'रामपथ' से ही लेकिन राम का उत्कर्ष है संभव।
कर्मभूमि के खातिर जन्मभूमि छोड़नी होगी।
तुम्हे गर राम बनना है, अयोध्या छोड़नी होगी।

Tuesday, 27 December 2022

जो हो रहा है

जो हो चुका, होने को है, जो हो रहा है।
मेरा ज़हन क्यों बोझ इतना ढो रहा है।

हर चीज की मोहलत खतम होती ही है,
वो खो चुका, खो दूंगा ये, ये खो रहा है।
मेरा ज़हन क्यों बोझ इतना ढो रहा है।

वो जो बराबर था शरीक सबके गमों में,
देखो वही खुदसे लिपट के रो रहा है।
मेरा ज़हन क्यों बोझ इतना ढो रहा है।

मुमकिन नहीं उसको जगा पाना 'शफ़क',
जो बस दिखावे के लिए ही सो रहा है।
मेरा ज़हन क्यों बोझ इतना ढो रहा है।

Wednesday, 7 December 2022

मैं

तुम्हारी ख्वाहिश-ओ-दिल-ओ-जान में हूं मैं।
ये कैसी खुशफहमियो गुमान में हूं मैं।

तुम शहर में पहचान छुपाते हो भला क्यों,
अब तक भी तुम्हारी क्या पहचान में हूं मैं।
ये कैसी खुशफहमियो गुमान में हूं मैं।

मेरी खताएं, गलती-गुनाह याद है तुम्हे,
किसी बहाने सही हां तुम्हारे ध्यान में हूं मैं।
ये कैसी खुशफहमियो गुमान में हूं मैं।

बेटे को जो पढ़ते हुए देखा तो ये लगा,
तयारी में लगा है वो, इम्तेहान में हूं मैं।
ये कैसी खुशफहमियो गुमान में हूं मैं।

कुछ यूं है गज़ल अपने मोहब्बत के हश्र की,
मिसरो में तुम ही तुम हो, उनवान में हूं मैं।
ये कैसी खुशफहमियो गुमान में हूं मैं।