Friday, 14 October 2016
दोहे
मन में सौ परपंच है, मुख में मंत्रोपचार,
ऊपरी सब उपचार है, भीतर सौ बीमार।
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मनुज जाति के वास्ते ये उच्चकोटि बैराग
ना संसार की चाकरी ना संसार का त्याग।
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देखावा बाहर किया और भीतर कमज़ोर।
दरिया जो गहरा होगा नहीं करेगा शोर।
बाते
छोड़ो ये लढने लढाने की बाते।
ख़ामख़ा ही बढ़ेगी बढ़ाने से बाते।
लहज़ा कुछ हो, गलत तो गलत ही रहेगा,
बदलती नहीं स्वर चढाने से बाते।
बढ़ेगी यक़ीनन बढ़ाने से बाते।
सोच लो पहले कहने से दो बार भीतर,
झूठ लगती है यु लड़खड़ाने से बाते।
बढ़ेगी यक़ीनन बढ़ाने से बाते।
लफ्ज नायाब है, लुटाओ नहीं यु,
सस्ती हो जायेगी बड़बड़ाने से बाते।
बढ़ेगी यक़ीनन बढ़ाने से बाते।
ये कोशिश 'शफ़क़' फिरसे ज़ाया ही होगी,
पढ़ी कब किसीने पढ़ाने से बाते।
बढ़ेगी यक़ीनन बढ़ाने से बाते।
फिर क्यों तुम्हे मैं मात दू
मंज़िल हमारी भिन्न है, फिर क्यों तुम्हे मैं मात दू,
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।
है आज जो, परिणाम है गत कर्म, निर्णय, भाग् का,
मेरा है क्या सामर्थ्य जो विपरीत मैं हालात दू।
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।
क्या तुम्हारी जय पराजय मेरे ही आधीन है?
क्या हु मैं सूरज तुम्हारा दिन दू या की रात दू?
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।
शतरंज के तुम हो वज़ीर, प्यादे की सूरत कद मेरा,
मेरी है क्या औकात तुमको फांस लू, निजात दू।
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।
अंत जो इस खेल का हक़ में तुम्हारे ना हुआ,
अब तुम्हे उम्मीद मुझसे की नयी शुरुवात दू।
कुछ दांव खेलु, व्यूव रचु, क्यों व्यर्थ ही आघात दू।