हो पूर्णता अर्पण स्वयम का,
त्याग निजता का, अहम का,
औदार्य सब शंका, वहम का।
तब रहेगा प्रेम, बस!
कोई झिझक, संकोच, दुविधा,
हिचकिचाहट या असुविधा,
स्वाहा जब होगी ये समिधा।
तब रहेगा प्रेम, बस!
तन, मन, रहन हो जाए दर्पण,
पर आधीन नही, समर्पण,
हो पुष्प जैसे प्रभु को अर्पण।
तब रहेगा प्रेम, बस!
हो स्वतंत्र, अधिकार ना हो,
उम्मीदों का भार ना हो,
अनिवार्यता आधार ना हो।
तब रहेगा प्रेम, बस!
तन, मन, जहन, सब बांट ले,
अनुमान,शंका छांट ले,
बाहों में भरकर, डांट ले।
तब रहेगा प्रेम, बस!
हम, हम रहे, बदले नही,
किसी और रंग ढले नही,
हां, ये न हो संग चले नही।
तब रहेगा प्रेम, बस!